प्रथम वेद एवं वेद शिरोमणि ऋग्वेद के एक श्लोक में कहा गया है…..
इन्द्रं वर्धन्तो अप्तुरः कृण्वन्तो विश्वार्यम
अपघ्नन्तो अराव्णः ॥ ऋग्वेद ९/६३/५
अर्थात – हे परम ऐश्वर्ययुक्त आत्मज्ञानी! तुम आत्मशक्ति का विकास करते हुए गतिशील, भूल रहित होकर लोभ-लालच, अनुदारता, ईर्ष्या, आदि का विनाश करते हुए आर्य बनो एवं समस्त संसार को आर्य बनाओ।
कृण्वन्तो विश्वमार्यम् वेद की आज्ञा है और मनुष्य का धर्म है कि वह स्वयं आर्य अर्थात् श्रेष्ठ गुण-कर्म-स्वभाव से अलंकृत हो तथा दूसरों को भी यथाशक्ति आर्य बनाने का कार्य करे। एक ऐसा आर्य जो कि स्वयं भी तार्किक, वैज्ञानिक एवं कर्तव्य चेतना से ओतप्रोत हो, जो अनार्य और अज्ञानी को अपने अर्जित ज्ञान प्रेरित करे।
जिस प्रकार एक प्रकाशमान दीपक से ही दूसरे दीपकों को प्रकाशित किया जा सकता है, बुझे हुए दीपक से नहीं, उसी प्रकार से आर्य बनाने से पूर्व स्वयं आर्य बनना होता है। जो स्वयं आर्य व श्रेष्ठ गुणों वाले नहीं हैं, वह दूसरों को कदापि आर्य नहीं बना सकते।
स्वयं को श्रेष्ठ बनाने के हमें किन गुणों को धारण करना है और किन अवगुणों से दूर रहना है, उनमे से कुछ तो हमें श्रीमद्भागवत गीता से भी सीखने को मिलते है| गीता में भगवान श्री कृष्ण के उपदेशों का वर्णन है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से संसार को गीता का उपदेश दिया था। श्री कृष्ण के उपदेशों को सुनकर ही अर्जुन अपने लक्ष्य को पूरा करने की ओर अग्रसर हुए थे। कहा जाता है कि गीता में जीवन की हर एक परेशानी का हल मिल जाता है। गीता हमें सच्चा कर्मयोगी बनने की प्रेरणा देती है, गीता में कही गई श्री कृष्ण की बातें आज भी जीवन में आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा देती हैं। आज मैं आपको गीता के कुछ अनमोल उपदेशो का सरल हिंदी अर्थ समझाता हूँ जो जीवन को नई राह दिखाते हैं…
1. फल की इच्छा छोड़ कर्म पर ध्यान देना चाहिए
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन् | गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि मनुष्य को फल की इच्छा छोड़कर कर्म पर ध्यान देना चाहिए। मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसे फल भी उसी के अनुरूप मिलता है। इसलिए व्यक्ति को अच्छे कर्म करते रहना चाहिए।
तन को कर पाषाण तू, और श्वास को ज्वाला बना,
भाग्य के बल पर न जी, तू खुद ही अपना रथ चला।
इस जीवन को दिशा तू दे, तू लक्ष्य को स्थापित कर।
कर्म कर, ऐ मूढ़ मन, तू कर्म कर, तू कर्म कर ।।
2. स्वयं का आकलन
श्रीकृष्ण के अनुसार व्यक्ति को खुद से बेहतर कोई नहीं जान सकता, इसलिए स्वयं का आकलन करना बेहद जरूरी है। गीता में कहा गया है कि जो व्यक्ति अपने गुणों और कमियों को जान लेता है वह अपने व्यक्तित्व का निर्माण करके हर काम में सफलता प्राप्त कर सकता है। लेकिन आजकल स्वयं का आंकलन करना एक अत्यधिक कठिन कार्य प्रतीत होता है …..
झांक रहे सब इधर उधर अपने अंदर झांके कौन…?
ढूंढ रहे सब दुनियां में कमियां
अपने मन को ताकें कौन…?
दुनिया सुधरे सब चिल्लाते
अपने आप को सुधारे कौन…?
हम सुधरेंगे जग सुधरेगा यह सीधी बात स्वीकारे कौन…??
उर्दू के महान शायद मिर्ज़ा ग़ालिब ने भी फरमाया है के …
उम्र भर गालिब यही भूल करता रहा।
धूल चेहरे पे थी आईना साफ करता रहा।।
3. मन पर नियंत्रण
हमारा मन ही हमारे दुखों का कारण होता है। भगवद गीता के छठे अध्याय में, भगवान कृष्ण ने मन को नियंत्रित करने के महत्व का विस्तार से वर्णन किया है। भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि जिस व्यक्ति ने अपने मन पर काबू पा लिया वह मन में पैदा होने वाली बेकार की चिंताओं और इच्छाओं से भी दूर रहता है। साथ ही व्यक्ति अपने लक्ष्य को भी आसानी से प्राप्त कर लेता है। पूरी तरह वश में किया हुआ मन सबसे अच्छा मित्र होता है, लेकिन ये अनियंत्रित हो जाए तो सबसे बड़ा शत्रु हो जाता है |
अपने मन को नियंत्रित करने वाले स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार “मन को नियंत्रित करना एक दिन का काम नहीं है, बल्कि इसके लिए नियमित और व्यवस्थित साधना की आवश्यकता होती है। जब यह नियंत्रित हो जाता है, तो अंदर से ऐसा महसूस होता है जैसे की परमात्मा की प्राप्ति हो गई है”।
4. क्रोध पर काबू रखें
क्रोध में व्यक्ति नियंत्रण खो बैठता है और आवेश में आकर गलत कार्य कर देता है। यहां तक कि कभी-कभी गुस्से में व्यक्ति खुद का अहित कर बैठता है। गीता में श्रीकृष्ण ने बताया है कि क्रोध को खुद पर हावी नहीं होने देना चाहिए। यदि गुस्सा आए तो स्वयं को शांत रखने का प्रयास करें।
क्रोध के विषय में स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने भी कहा है कि क्रोध का भोजन विवेक है, इससे बचके रहो, विवेक के नष्ट होने पर सब कुछ नष्ट हो जाता है |
5. स्पष्ट नजरिया
गीता के अनुसार व्यक्ति को संदेह या संशय का स्थिति में नहीं रहना चाहिए, जो लोग सदा संशय अथवा दुविधा की स्थिति में रहते हैं, उनका भला नहीं हो सकता है। जीवन में स्पष्ट नजरिया होना चाहिए। मुझे ये करना है ये नहीं, यह मेरे लिए सही है यह नहीं|
दृष्टिकोण स्पष्ठ होने के साथ-साथ यदि सकारात्मक भी है, तो सफलता निश्चित है| यदि एक कांच के गिलास में पानी आधा भरा है तो कुछ व्यक्तियों को लग सकता है कि गिलास आधा खाली है, यह नकारात्मक सोच का परिणाम है, जबकि सकारात्मक नजरिया रखने वाले मन को यह सोचकर संतुष्टि होगी कि चलो गिलास कम से कम आधा भरा हुआ है|
अब अपनी वाणी को विराम देते हुए मैं अंत में यही दोहराना चाहूँगा कि “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” के सही अर्थ को समझकर सर्वप्रथम स्वयं को श्रेष्ठ बनाने के प्रयास करके हम संसार को श्रेष्ठ बनाने में योगदान दे सकते है| महात्मा गांधी जी ने भी कहा है “स्वयं में वो बदलाव कीजिये जो आप दुनिया में देखना चाहते है|”
और श्रीमदभग्वद गीता की मुख्य शिक्षाओं को अपने जीवन में चरितार्थ कर हमें अपना और अपने समाज का उत्थान करने का प्रयास अवश्य करना चाहिए !
आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद …….
लेखक/ संकलनकर्ता,
श्रीपाल सिंह