हवा हर तरफ़ साफ़ थी मगर, सब चेहरों पर मास्क था,
निर्मल होती गंगा की क़ीमत का, होने लगा एहसास था,
गुज़रा वो दौर, वो ख़ूनी कहानी कोई क्यूँ दोहराए अब,
जीव अज़ीब कोरोना जब आया, वो साल 2 हज़ार बीस था।
हाथ हम सबके साफ़ थे मगर, हाथ कोई मिलाता ना था,
अकेले थे सब, वक्त बहुत था पर मिलने कोई आता ना था,
गुज़रा वो दौर, वो ख़ूनी कहानी कोई क्यूँ दोहराए अब,
जीव अज़ीब कोरोना जब आया, वो साल 2 हज़ार बीस था।
सड़कें सब सुनसान थी मगर, गाड़ी कोई चलाता ना था,
पेड़ों पर फिर से चहके परिंदे, पार्को में कोई जाता ना था।
गुज़रा वो दौर, वो ख़ूनी कहानी कोई क्यूँ दोहराए अब,
जीव अज़ीब कोरोना जब आया, वो साल 2 हज़ार बीस था।
चप्पे-चप्पे पर था दुश्मन, मगर कोई उसे देख पाता ना था,
मार देता जब वो किसी को, कोई अपना उसे अपनाता ना था,
गुज़रा वो दौर, वो ख़ूनी कहानी कोई क्यूँ दोहराए अब,
जीव अज़ीब कोरोना जब आया, वो साल 2 हज़ार बीस था।
पैसे वाले लाचार बहुत थे, खर्च करने कोई जा पाता ना था,
और जिसके पास नहीं थे पैसे, वो कमाके ला पाता ना था,
गुज़रा वो दौर, वो ख़ूनी कहानी कोई क्यूँ दोहराए अब,
जीव अज़ीब कोरोना जब आया, वो साल 2 हज़ार बीस था।
गुज़रा वो दौर, वो ख़ूनी कहानी कोई क्यूँ दोहराए अब ।
सीख लो इस से कुछ तो दोहराना सफल माना जाए तब ।
कमाओ रिश्ते, दौलत छोड़ो, अहंकार को तुम दफ़न करो,
जियो जिंदग्गी ज़िंदादिल, तुम कद्र करो अपने अपनो की,
क्या पता कब कोरोना का पौता कब्र खोद जाए किसके सपनों की।
जीव अज़ीब कोरोना जब आया, वो साल 2 हज़ार बीस था। – 2
श्री (03/05/2020)
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